माता पिता की सेवा

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सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता, मातरम् पितरम तस्मात् सर्वयत्नेन पूज्येत |

अर्थात माता में सभी तीर्थों का वास है और तीर्थों की पवित्रता से भी अधिक पवित्र माता होती है | इसी प्रकार पिता में सभी देवता प्रतिष्ठित है | देवता पत्थरों में कम और माता पिता के चरणों में अधिक बसते हैं | इसलिए जितनी अधिक हो सके माता पिता की सेवा करनी चाहिए | वैसे भी हिन्दू संस्कृति में पुत्र के लिए अपने माता पिता की सेवा एवं उनकी आज्ञा का पालन करना महत्वपूर्ण माना गया है | इसे सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है | ग्रंथों में भी कहा गया है कि मात्रदेवो भव | पितृ देवो भव | आचार्य देवो भव |

अर्थात माता पिता एवं आचार्य को देवता मानने वाले बनो | पदमपुराण नामक ग्रन्थ में तो यहाँ तक लिखा है कि जो पुत्र कटू शब्दों द्वारा माता पिता की निंदा करता है और दुखी तथा रोग से पीड़ित एवं वृद्ध माता पिता का त्याग करता, है उस पुत्र को नरक में जाने से और नरक रूपी जीवन जीने से कोई देवता भी नहीं बचा सकता | दूसरी ओर माता पिता की सेवा करने वालों की सद्गति एवं सुख प्राप्त करने के हजारों प्रमाण हमारे शास्त्रों में भरे पड़े है |

पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता ही परमं तपः |

पितरीं प्रितिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः |

पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है | पिता के प्रसन्न हो जाने पर देवता स्वयं प्रसन्न हो जाते है | माता पिता की सेवा से नित्यप्रति गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है | संत तुलसीदास जी ने भी कहा है कि मातु पिता गुर प्रभु के वाणी | बिनहिं विचार करिए शुभ जानी |

अर्थात माता पिता की सेवा जीवन पर्यन्त तो करनी ही चाहिए अपितु उनके मरने के पश्चात् उनके श्राद्ध एवं तर्पण आदि कार्य करना भी नितान्त आवश्यक परम धर्म माना गया है | पितरों के श्राद्ध एवं तर्पण का फल भी तो पुत्र को ही मिलता है इसमें कोई सन्देह नहीं है | अतः सभी को अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए मार्कंडय पुराण में भी तो यही लिखा आया है |

शनि कष्टों का निवारण पिप्लादी साधना

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ब्रह्माण्ड में शनि ग्रह को सबसे महत्वपूर्ण पद दण्डाधिकारी का पद मिला हुआ है | मनुष्य के पिछले जन्मों के कर्मों का लेखा-जोखा करने के पश्चात व्यक्ति को दुखों रूपी अग्नि में तपाकर कुन्दन बनाने का काम शनि महाराज के अन्तर्गत आता है लेकिन विधाता ने दुखों को कम करने के उपाय भी बताये हैं |

शनि जनित कष्टों से भगवान शिव का नाम ही बचा सकता है इसलिए पिप्लाद भगवान की साधना करने वाले मनुष्यों को शनि भगवान पीड़ा नहीं देते | शनि संकट को दूर करने के लिए ही भगवान शंकर ने पिप्लाद के रूप में जन्म लिया | ऋषि पिप्लाद ब्रह्मा जी के वंशज महर्षि दधीचि जी के सपुत्र थे | जब महर्षि दधीचि ने तीनों लोकों के कल्याण के लिए जीते जी अपनी देह दान करके अपनी हड्डियों को देवराज इन्द्र के सपुर्द किया उस समय दधीचि ऋषि की पत्नी सुवर्चा जंगल में लकड़ियाँ इकट्ठी करने गई हुई थी | जब उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से इस देह दान को देखा व समझा तो मारे गुस्से के अपने द्वारा लाई लकड़ियों की चिता बनाकर बोली कि हे पतिदेव मैं आपको वापिस तो नहीं ला सकती लेकिन आपके पास तो आ सकती हूँ | यह कहकर ज्योंही ऋषि पत्नी ने अपनी चिता को आग लगाई तभी पूरा ब्रह्माण्ड काँपने लगा क्योंकि महर्षि दधीचि और पत्नी सुवर्चा दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे और देवताओं को भगवान शिव के आश्वासन के फलस्वरूप स्वयं भगवान ही ऋषि पत्नी की कोख में पल रहे थे | उसी समय आकाश से भविष्य वाणी हुई कि हे सुवर्चा तुम्हारे साथ जो हुआ है वह बहुत ही गलत हुआ है लेकिन यह पूरे ब्रह्माण्ड को बचाने के लिए हुआ है | अगर महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण न होता तो महाबली वृतासुर का वध नहीं होता और सारी सृष्टि पर असुरों का राज हो जाता | इसलिए अपने साथ भगवान शिव के अंश अवतार को मार देना महा पाप है | तब सुवर्चा बोली कि अगर मेरी कोख में भगवान शिव का अंश अवतार पल रहा है तो मैं इसी क्षण उन्हें प्रकट करके अपने प्राण त्याग दूंगी | यह कहते हुए सुवर्चा ने एक नुकीले पत्थर से अपना पेट काटकर बच्चे का जन्म कराया और अपने प्राण त्याग दिये | भगवान शिव का अंश अवतार होने के कारण बालक का शरीर दिव्य तेज से जगमगा रहा था | नीले कंठ पर सर्प लिपटा था | दया का सागर आँखों में हिलोरें ले रहा था | कपूर सी गोरी व सुगन्धित काया से युक्त बालक पीपल के वृक्ष के नीचे पत्थर पर लेटा था | तभी ब्रह्मा जी सहित सभी देवता वहां आ गए और भगवान शिव के अंश अवतार के दर्शन करने लगे | तभी ब्रह्मा जी बोले कि महर्षि दधीचि के पुत्र रूद्र अवतार है और शिव की तरह ही जगत का कल्याण करेंगे | पीपल के वृक्ष के नीचे जन्म होने के कारण ब्रह्मा जी ने रूद्र अवतार का नाम पिप्लाद रखा |

आगे चल कर भगवान शिव के अंश अवतार महर्षि दधीचि के पुत्र महर्षि पिप्लाद ने कठोर तपस्या करके कई सिद्धियाँ हासिल की और शनि देव की शक्तियों पर नियन्त्रण कर लिया | उन्होंने शनि देव से दो संकल्प कराये | पहला बाल अवस्था में किसी मनुष्य को कष्ट नहीं दोगे और दूसरा कि पिप्लादी साधना करने वालों को कभी कष्ट नहीं दोगे | महर्षि पिप्लादी की कृपा से शनि देव इस प्रतिज्ञा से बंधे है | शनि का संकट दूर करने के लिए ही भगवान शंकर ने पिप्लाद के रूप में जन्म लिया था | तभी से शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के समीप भगवान शंकर के अंश अवतार व महर्षि दधीचि के पुत्र महामुनि महर्षि पिप्लाद की साधना करने से शनि संकट रुपी सभी रोग, शोक, दीनता, दुख व दरिद्रता आदि सभी दूर होकर जीवन सफल हो जाता है |

वेदों का नेत्र ज्योतिष

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माँ सरस्वती जी की वन्दना के पश्चात्, ज्योतिष के विषय में इतना बताना चाहूँगा कि ज्योतिष शास्त्र में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है, यह विशुद्ध विज्ञान है | आज के आधुनिकतम विज्ञान का रहस्य इसके गर्भ से ही निकलता है | ज्योतिष शब्द की व्युत्पति ज्योति से हुई है | ज्योति का अर्थ है प्रकाश | जिस ज्ञान के शब्दों से प्रकाश की किरणें निकलती हों ऐसे शब्दों के सार को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है | आज से सहस्त्रो वर्ष पूर्व ‘श्री सूर्य, भृगु, अत्री कश्यप, बृहस्पति, पाराशर आदि महर्षियों ने लोक कल्याण हेतु इस विद्या को प्रकाशित एवं प्रचलित किया था |
Astrology is a science which has come down to us as a gift from Ancient Rishis.

हिन्दू धर्म में चार वेदों को मान्यता प्राप्त है – ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद जिन्हें सभी विद्याओ का मूल माना जाता है | इन्हीं वेदों में से ऋग्वेद के छठे अंग को ज्योतिष कहा गया है इसीलिए ज्योतिष को ज्योतिषामयनं चक्षुः यानि वेदों का नेत्र भी कहा गया है | जिस प्रकार नेत्रों से विभिन्न वस्तुओ की गतिविधियों को देखा जाता है, उसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र द्वारा भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल में घटने वाली घटनाओं की जानकारी मिल सकती है | चन्द्रमा की शीतलता के प्रभाव से समुद्र में ज्वार भाटा आता है | सूर्य की गर्मी से कोणार्क में फसलें पकती है यह बात हम सभी जानते हैं | उसी प्रकार से सूर्य, चन्द्र व अन्य ग्रहों का पृथ्वी व पृथ्वी वासियों पर प्रभाव पड़ता है |

ज्योतिष के दो विभाग होते हैं – गणित एवं फलित | गणित द्वारा ब्रह्माण्ड में ग्रहों की स्थिति एवं फलित द्वारा ग्रहों का जीवन पर असर देखा जाता है | इन्सान का जीवन और सुख दुख, इनका आपस में अटूट रिश्ता है | इस अटूट बन्धन में ज्योतिष का अपना महत्व है यह बात भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण, नारद संहिता, वृहद सहिंता आदि ग्रंथों से प्रमाणित होती है | मानव कर्मशील होते हुए ग्रह चाल के अनुसार चलने को विवश है | प्रारब्ध के फल सवरूप मानव को लाभ-हानि, मान-सम्मान, अच्छे बुरे फल भोगने पड़ते है | पिछले 30 वर्षो के अनुसंधान में हमने पाया कि रत्न, रुद्राक्ष एवं मन्त्रों से ग्रहों के शुभ प्रभाव को बढाया एवं अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है जिससे जीवन में खुशहाली प्राप्त की जा सकती है |

ब्रह्मूर्त में उठने के लाभ

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दिन के चौबीस घन्टों में से वेदाध्ययन, योगाभ्यास, ध्यान, कुण्डलिनी जागरण, आधात्मिक क्रियाओं व् बच्चों की पढाई हेतु यह समय सबसे उपयुक्त है | रात्रि के चतुर्थ पहर में चन्द्रमा की किरणें अमृत कणों से युक्त होने के कारण पृथ्वी पर अमृत रुपी शीतलता प्रदान करती है जो शारीरिक और मानसिक बल प्रदान करती है इसलिए प्रातः 4 बजे से साढ़े पांच बजे तक के समय को अमृत बेला भी कहा गया है | वेदों के अनुसार इस समय को ही ब्रह्म मुहर्त कहा गया है और इस समय उठने वाले पुरुष महिला व बच्चों को शारीरिक व मानसिक रोग दूसरों की अपेक्षा कम पाए जाते है क्योंकि ब्रहम मुहर्त में चल रही वायु में ऑक्सिजन की मात्रा अधिक पाई जाती है | यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं |

प्रातः काल हाथ दर्शन एवं स्मरण

अमृत बेला में उठकर सर्व प्रथम अपने दोनों हाथों को सामने से देखते हुए इस श्लोक का पाठ करना चाहिए | कराग्रे वसते लक्ष्मी ; कर मध्य सरस्वती | करमूले स्थिता गौरी प्रभाते कर दर्शनम |

हाथों के अग्र भाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती, तथा मूल भाग में मणिबन्ध के पास माँ गौरी निवास करती हैं | हाथों को कर्मों का प्रतीक रूप माना गया है और कर्मों को सम्पन करने में माँ लक्ष्मी एवं माँ सरस्वती अर्थात धन एवं बुद्धि यानि ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | ज्ञान और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए हमारे हाथों से समस्त क्रियाएँ हों यही भावना मन में धारण करके प्रात कर दर्शन का विधान तय हुआ है | इस के इलावा भाग्य को प्राप्त करने के लिए भी इन्हीं हाथों द्वारा कर्मों को करने की आवश्यकता होती है | अतः अमृत बेला में यानि प्रात उठकर कर दर्शन के पश्चात् हाथों को अपने मस्तक पर लगा कर हमें अपना दिन प्रारम्भ करना चाहिए |